निवेदिता जी, एक बात कहें, आप बुरा न मानना.... मेरे सहकर्मी लोकेश ने जब ये कहा तो एक बारगी तो मुझे लगा कि वो जरुर महिला पुरुष से जुडी कोई टिप्पणी करना चाहते हैं... मैं एक संभावित बहस के लिए तैयार हो गई. एक इन्सान कैसे माहौल को बदल देता है. उनकी यह बात सुनकर मुझे बेहद ख़ुशी भी हुई और थोड़ी हैरानी भी हुई. उनके कहने का मतलब था कि मेरे आने से न्यूज़ रूम का माहौल काफी बदल गया है. जहाँ बात बात पर एक दूसरे की माँ बहन की ऐसी तैसी की जाती हो वहां मेरे सामने तो कम से कम वो अपनी जुबान पर काबू रखते हैं. न्यूज़ रूम के गर्म माहौल में हालाँकि दिमाग ठंडा रखना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन फिर भी मेरे सामने अपनी जुबान पर इतना काबू पा लेने पर मेरे ऑफिस के सभी महाशय मेरी बधाई के पात्र हैं. मगर अभी भी कई ऐसे हैं जो धारा परवाह अपशब्दों की गंगा बहाते रहते हैं. और उनमे भी कुछ महान तो ऐसे हैं जिन्हें पता ही नहीं चलता कि उन्होंने बात करते करते किसी की माँ बहन के बारे में बदजबानी कर दी हैं. उन्हें टोक दो तो कहते हैं कि हमने कब गाली दी.... मुझे कई बार उनकी अज्ञानता पर हंसी आती है तो कभी बेहद चिढ़ भी होती है. मगर ये उनका कसूर नहीं है..... घर का माहौल, यार दोस्तों की संगत उनकी जुबान बिगाड़ देती है. अपने आस पास भी कई लोगों को देखा, जो बिना किसी helping verb के अपनी बात पूरी नहीं कर पाते, दूर क्यूँ जाना मेरे पापा भी बात बात में अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं. मुझे शुरू से ही ये बात पसंद नहीं... आखिर अपनी माँ बहन के लिए दुनिया से टकरा जाने वाले पुरुष किसी दूसरे की माँ बहनों को सम्मान क्यों नहीं देते... तो मेरे सामने कभी भी कोई किसी महिला से बदतमीजी से बात करता है तो मैं उसे टोक देती हूँ. लेकिन हर जगह ये मुमकिन नहीं होता... मीडिया में आई तो लगा कि अब माहौल को बदलने का मौका मिलेगा लेकिन पता चला कि मीडिया वाले भी कम नहीं हैं.. यहाँ तो गाली के बिना बात ही नहीं होती. कई बार लगता है कि ठीक ही है आखिर समय पर काम पूरा करवाने के लिए कई बार गुस्सा करना ही पड़ता है, लेकिन फिर मन में ये ख्याल भी आता है कि अगर गाली देनी ही है तो महिलाओं को नीचा दिखने वाली गाली क्यूँ दी जाये... पुरुष दंभ को तोड़ती कोई गाली क्यूँ न बनाई जाये. मैं और मेरी दोस्त अमन हमेशा इसी बात पर अपने classmate से टकरा जाते थे. मानसिकता बदलने की ये हमारी छोटी सी कोशिश थी... इंस्टिट्यूट से निकले और जॉब ज्वाइन की तब भी यही सोचा कि आस पास के माहौल को जहाँ तक मुमकिन होगा बदल डालेंगे... जॉब में भी मैंने यही रवैया अपनाया. कोई मेरे सामने किसी महिला से फालतू चूं चपड़ करे तो मैं तबियत से चमका देती थी उसे. अच्छी किस्मत थी बॉस भी अच्छे मिले.... लेकिन जब रीजनल डेस्क पर आई तो लगा कि अब दिक्कत हो सकती है, पूरे ऑफिस में हम दो लड़कियां.. सीमा जी 8 बजे चली जाती थी, उसके बाद मैं निपट अकेली... page जाने का समय आते आते सभी का दिमाग गरम होने लगता था. इधर उधर से इसकी माँ की.... 'बहन.... काम नहीं करते' 'निकालो बहन.... को बाहर'... हालाँकि आस पास से ऐसा नहीं सुनाई देता था लेकिन फिर भी कभी कभी कानों में ऐसे शब्द जाते तो बहुत खून खौलता था. कुछ दिन तो मैंने सहन किया फिर मुझे लगा कि अगर मैं यूँ ही चुप रही तो ये सब मेरे सर पर बैठ कर कत्थक करेंगे, उसी दिन से मैंने हर गाली देने वाले महानुभाव को टोकना शुरू कर दिया... कुछ ने मेरे सामने तौबा की.... तो कई ऐसे भी हैं जो जान बूझकर अब भी बोल देते हैं और दांत निकालने लगते हैं... उन्हें मैं कुछ नहीं कहती.... आखिर किसी किसी कुत्ते की दुम हद से ज्यादा टेढ़ी भी होती है, कितनी भी कोशिश करो.... सीधी ही नहीं होती.