Tuesday, April 13, 2010

माहौल बदलती लड़कियां

निवेदिता जी, एक बात कहें, आप बुरा न मानना.... मेरे सहकर्मी लोकेश ने जब ये कहा तो एक बारगी तो मुझे लगा कि वो जरुर महिला पुरुष से जुडी कोई टिप्पणी करना चाहते हैं... मैं एक संभावित बहस के लिए तैयार हो गई. एक इन्सान कैसे माहौल को बदल देता है. उनकी यह बात सुनकर मुझे बेहद ख़ुशी भी हुई और थोड़ी हैरानी भी हुई. उनके कहने का मतलब था कि मेरे आने से न्यूज़ रूम का माहौल काफी बदल गया है. जहाँ बात बात पर एक दूसरे की माँ बहन की ऐसी तैसी की जाती हो वहां मेरे सामने तो कम से कम वो अपनी जुबान पर काबू रखते हैं.  न्यूज़ रूम के गर्म माहौल में हालाँकि दिमाग ठंडा रखना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन फिर भी मेरे सामने अपनी जुबान पर इतना काबू पा लेने पर मेरे ऑफिस के सभी महाशय मेरी बधाई के पात्र हैं. मगर अभी भी कई ऐसे हैं जो धारा परवाह  अपशब्दों की गंगा बहाते रहते हैं. और उनमे भी कुछ महान तो ऐसे हैं जिन्हें पता ही नहीं चलता कि उन्होंने बात करते करते किसी की माँ बहन के बारे में बदजबानी कर दी हैं. उन्हें टोक दो तो कहते हैं कि हमने कब गाली दी.... मुझे कई बार उनकी अज्ञानता पर हंसी आती है तो कभी बेहद चिढ़ भी होती है. मगर ये उनका कसूर नहीं है..... घर का माहौल, यार दोस्तों की संगत उनकी जुबान बिगाड़ देती है. अपने आस पास भी कई लोगों को देखा, जो बिना किसी helping verb के अपनी बात पूरी नहीं कर पाते, दूर क्यूँ  जाना  मेरे पापा भी बात बात में अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं. मुझे शुरू से ही ये बात पसंद नहीं... आखिर अपनी माँ बहन के लिए दुनिया से टकरा जाने वाले पुरुष किसी दूसरे की माँ बहनों को सम्मान क्यों नहीं देते... तो मेरे सामने कभी भी कोई किसी महिला से बदतमीजी से बात करता है तो मैं उसे टोक देती हूँ. लेकिन हर जगह ये मुमकिन नहीं होता... मीडिया में आई तो लगा कि अब माहौल को बदलने का मौका मिलेगा लेकिन पता चला कि मीडिया वाले भी कम नहीं हैं.. यहाँ तो गाली के बिना बात ही नहीं होती. कई बार लगता है कि ठीक ही है आखिर समय पर काम पूरा करवाने के लिए कई बार गुस्सा करना ही पड़ता है, लेकिन फिर मन में ये ख्याल भी आता है कि अगर गाली देनी ही है तो महिलाओं को नीचा दिखने वाली गाली क्यूँ दी जाये... पुरुष दंभ को तोड़ती कोई गाली क्यूँ न बनाई जाये. मैं और मेरी दोस्त अमन हमेशा इसी बात पर अपने classmate से टकरा जाते थे. मानसिकता बदलने की ये हमारी छोटी सी कोशिश थी... इंस्टिट्यूट से निकले और जॉब ज्वाइन की तब भी यही सोचा कि आस पास के माहौल को जहाँ तक मुमकिन होगा बदल डालेंगे... जॉब में भी मैंने यही रवैया अपनाया. कोई मेरे सामने किसी महिला से फालतू चूं चपड़ करे तो मैं तबियत से चमका देती थी उसे. अच्छी किस्मत थी बॉस भी अच्छे मिले.... लेकिन जब रीजनल डेस्क पर आई तो लगा कि अब दिक्कत हो सकती है, पूरे ऑफिस में हम दो लड़कियां.. सीमा जी 8 बजे चली जाती थी, उसके बाद मैं निपट अकेली... page जाने का समय आते आते सभी का दिमाग गरम होने लगता था. इधर उधर से इसकी माँ की.... 'बहन.... काम नहीं करते' 'निकालो बहन.... को बाहर'... हालाँकि आस पास से ऐसा नहीं सुनाई देता था लेकिन फिर भी कभी कभी कानों में ऐसे शब्द जाते तो बहुत खून खौलता था. कुछ दिन तो मैंने सहन किया फिर मुझे लगा कि अगर मैं यूँ ही चुप रही तो ये सब मेरे सर पर बैठ कर कत्थक करेंगे, उसी दिन से मैंने हर गाली देने वाले महानुभाव को टोकना शुरू कर दिया... कुछ ने मेरे सामने तौबा की.... तो कई ऐसे भी हैं जो जान बूझकर अब भी बोल देते हैं और दांत निकालने लगते हैं... उन्हें मैं कुछ नहीं कहती.... आखिर किसी किसी कुत्ते की दुम हद से ज्यादा टेढ़ी भी होती है, कितनी भी कोशिश करो.... सीधी ही नहीं होती.

5 comments:

  1. पुरुष प्रधान समाज को बदलने का बीड़ा उठाने के लिए सबसे पहले बधाई। जिस 'हेल्पिंग वर्बÓ की आप बात कर रही हैं, ईमानदारी से कहूं तो उसका मैं भी इस्तेमाल करता हूं, लेकिन देश और काल देखकर। अभी भी कई लोग हैं जो बकझक करते-करते कब गालियां बकने लगने हैं, उन्हें खुद भी नहीं पता चलता। मैं खुद उन्हें कई बार टोकता हूं, लेकिन, (जैसा कि आपने लिखा है- 'कुछ कुत्तों की दुम कितने भी यत्न कर लीजिए, सीधी नहीं होतीÓ) उन पर कोई असर नहीं होता। और माहौल वाकई लड़कियां बदल देती हैं। आपको जब मौका मिला करे, ऐसे लोगों को चमका दिया करिए, बेझिझक।
    शुभकामनाएं...

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  2. Your views are execellent Niv. If everybody especially girls try to remove these kind of evils from our society it is possible. Good things are difficult but not impossible. So carry on we are with you.
    Seema

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  3. क्या बात है तितली! तुम्हारा इशारा कहीं मेरी ओर तो नहीं है? बाबू न्यूजरूम में तो मैं ही सबसे ज्यादा चिल्लाता हूं, क्योंकि मेरे दिमाग का दही विज्ञापन, प्रोडक्शन, हिसार, चंडीगढ़ और अपने डेस्क पर होता है। पर मैं जूता ज्यादा मारता हूं... गालियां तो शायद....। बहरहाल, मैं सदा से मानता आया हूं कि जहां स्त्री होती है, वहां अनुशासन स्वत: आ जाता है। दूसरे शब्दों में महिलाओं का बहुत सम्मान करता हूं। अलग बात है कि मुंह खोलने से पहले एक बार तसल्ली जरूर कर लेता हूं कि तुम हो कि नहीं। हा... हा... हा... बहुत अच्छा लिखा है। मेरी शुभकामनाएं सदैव तुम्हारे साथ हैं। आगे बढ़ती रहो।

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  4. bilkul sahi kaha aapne..
    waise jahan tak maine suna hai ki Hitlar ke saamne achchhe achchhe ki jubaan sil jaati thi magar ab to hitlar rahe nahi yaha aisa bhi ho sakta ki aapka najariya badla ho ..agar aisa hai to badhai ke paatra aap hain baki jise sekni hogi wo to sek hi leta hain...

    likney ka style aur mudda behtar hai..ise dekh kar wo sher khyaal aata hai ki dil bahlane ke liye khyal achchha hai galib !!

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  5. hi, itne dino se apki kalam kyon khamosh hai. sukhi pen me shayhi bhariye aur nikal dijiye man ki bhadas.

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