Tuesday, January 12, 2010

चक दे नहीं चेक दे

सचिन बने टैक्स देने में भी नंबर १. अखबार में इस खबर को पहले पन्ने पर जगह दी गई. क्रिकेट भारत में धर्म है और सचिन भगवान्. ठीक है भाई जो सचिन ने टैक्स चुका दिया. अब उनके पास अरबों खरबों की दौलत है, उसमे से कुछ दाने टैक्स में दे भी दिए तो क्या बड़ी बात हो गई. बात पहले पन्ने लायक तो तब बनती जब कोई हाकी खिलाडी इतना ज्यादा टैक्स भरता. मगर न ऐसा कभी हुआ और न कभी कोई हाकी खिलाडी पहले पेज पर छप सका. मगर अब हाकी खिलाडियों ने भी कमर कस ली है. आखिर इज्जत का सवाल है भाई लोग. जितना पैसा उनके क्रिकेटी बंधू कमा रहें हैं, उसका कुछ हिस्सा इन्हें भी तो मिले. आखिर ये भारत का राष्ट्रीय खेल खेलते हैं. भारत का दुर्भाग्य है की क्रिकेट के खिलाड़ियों पर पैसा बरसता है, वहीँ राष्ट्रीय खेल खेलने वाले वेतन भत्ता भी नहीं पा रहे. कोई नहीं जान पाता इस बात को अगर खिलाडी खेल को छोड़ देने जैसी गंभीर बात नहीं कह देते. आखिर ऐसा क्यों होता है. इन्हें क्रिकेटरों की तरह न तो विज्ञापनों से कोई आय होती है और न टूर्नामेंट्स खेलने के लिए अलग से कोई प्रोत्साहन राशि मिलती है। उस पर अगर वेतन भी न मिले तो समझा जा सकता की आखिर हाकी में हमारी हालत इतनी पतली क्यों है. फेडरेशन भंग होने के बाद हाकी इंडिया के गठन को कुछ ही महीने हुए हैं। अभी तो ये अपने लिए धन के स्त्रोत भी पैदा नहीं कर पाया होगा, पर स्पॉंसरशिप के रूप में उसे तीन करोड़ रुपये तो मिले हैं। साथ ही हाकी फेडरेशन के भंग होने पर सेवामुक्त अधिकारी फेडरेशन का पैसा अपने घर तो लेकर नहीं गए होंगे। पुराने खातों से या नई स्पॉन्सरशिप से खिलाड़ियों के हाथ में कुछ तो दिया ही जा सकता था, मगर ऐसा नहीं हुआ और विवाद बढ़ता ही चला गया. वैसे तो हालत पहले से ही ख़राब थे मगर ऐसी बातों का असर विश्वकप और फिर कॉमनवेल्थ में हमारे प्रदर्शन पर भी पड़ सकता है। वैसे भी अस्सी साल में पहली बार हमारी हाकी टीम ओलिंपिक के लिए क्वॉलिफाई तक नहीं कर पाई। कभी इसी खेल ने हमको पहला ओलिंपिक गोल्ड दिलाया था। पर अब तो उन दिनों की यादें ही बाकी रह गई हैं. मगर इस बहाने से ही सही एक बार फिर भारतीय हाकी ने अखबार के पहले पन्ने पर तो अपने लिए थोड़ी सी जगह बना ही ली। चक दे हाकी

1 comment:

  1. खेल में जब तक राजनीति का दखल रहेगा तब तक सुधार होना मुश्किल है। धनराज पिल्ले जैसे महान खिलाड़ी को लोग आज क्यों नहीं पहचानते ? जिस खेल पर हमें रंज था, आज वही इतना पीछे हो गया है। ठीक है, फिल्म चक दे देखकर हम जोश में आ जाते हैं पर रिल और रियल लाइफ में जमीन आसमान का अंतर है। आपका लेख काफी अच्छा है और ...आखिर में आपने लिखा कम से कम अखबार में जगह तो मिली....सोचने को मजबूर करता है। लिखते रहिए...क्या मालूम ये आवाज किसे जगा दे। अगर एक भी निद्रा से जग गया, समझो आप सफल हो गए।

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