Sunday, February 7, 2010
माननीय सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट का कहना है की दहेज़ के लिए होने वाली हर मौत में उम्र कैद की सजा देना सही नहीं है. यह टिपण्णी एक ऐसे केस की सुनवाई के समय आई है जिसमे शादी के एक महीने बाद ही लड़की ने फंसी लगा लगा कर अपनी जान दे दी थी. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने महिला को इस अंजाम तक पहुँचाने वाले इंसान की उम्र कैद की सजा कम करके केवल १० साल karne की बात कही है. दोषी को सिर्फ दुर्लभ मामलो में ही उम्र कैद की सजा दी जानी चाहिए. कहा गया की वह इंसान काफी युवा है, इसलिए १० साल की कैद बहुत है. क्या उस महिला ने अपनी सारी जिंदगी देख ली थी जो उसे मरने को मजबूर करने की बात को सुप्रीम कोर्ट ने दुर्लभ नहीं माना. उन माँ बाप का क्या जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े को अरमानो के साथ ससुराल भेजा था. उन्हें अगर मालूम होता की बेटी सिर्फ एक महीने ही जी पायेगी तो क्या वो उसके हाथों में उस पापी के नाम की मेहँदी लगने देते? नहीं, कभी नहीं. क्या उन्होंने लालची ससुराल वालों का मुंह भरने में कोई कोर कसर उठा रखी होगी जो एक महीने बाद ही बेटी की अर्थी को कन्धा देना पड़ गया. दस साल की सजा काटने के बाद तो वो कमीना अपनी जिंदगी फिर से शुरू कर सकेगा, मगर उन माँ बाप का क्या जिनकी जिंदगी में उसने ज़हर घोल दिया. खून के आंसू रोते होंगे वो. बार बार खुद को कोसते होंगे की क्यूँ नहीं पहले जांच लिया. खाना नहीं भाता होगा उस माँ को जिसने अपनी जवान बेटी की लाश फंदे से झूलती देखी होगी. कैसे जी रहा होगा वो बाप जिसे बुढ़ापे में जवान बेटी की अर्थी उठानी पड़ी. माननीय कोर्ट ने अगर उस कमीने की उम्र के साथ ही उस लड़की के बाप की झुकी हुई कमर भी देखी होती तो अच्छा होता, उस माँ की आँख से बहते आंसू बी माननीय कोर्ट को नजर आते तो शायद न्याय होता. दहेज़ कानून का दुरुपयोग बढ़ रहा ह मगर जहाँ किसी की जान चली जाये तो क्या उसे भी दुर्लभ केस न माना जाये....
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