Saturday, August 28, 2010

कर्ण कथा

ऐसा कहा जाता है कि जो महाभारत में नहीं है, वो दुनिया में नहीं हो सकता. मतलब दुनिया कि हर बुराई, हर अच्छाई, हर तरह की इंसानी फितरत महाभारत में है. मुझे भी ऐसा ही लगता है. मैं महाभारत की कथा से बहुत प्रभावित रही हूँ. बचपन में टीवी पर देख कर उसके सभी पात्रों से परिचय हुआ. लेकिन द्रौपदी और कर्ण, इनके किरदारों ने मुझे हमेशा आकर्षित किया. कैसे एक महिला पांच पतियों के साथ रह सकती है. कैसा लगता होगा उस इन्सान को, जिसे ये पता चले की उसकी माँ ने उसे जन्म लेते ही नदी के हवाले कर दिया.

दुनिया महाभारत को सिर्फ कृष्ण, अर्जुन, गीता उपदेश और युद्ध के लिए जानती है. मैं गीता की नगरी कुरुक्षेत्र  की रहने वाली हूँ. इसलिए मैंने भी बचपन से न्यायी पांडवों और अन्यायी कौरवों के बारे में सुना था. लेकिन कर्ण महाभारत का वो हिस्सा है, जिसके बिना पांडव भी अधूरे हैं और कौरव भी. वो पहला पांडव था इसलिए नियम अनुसार न्यायी था. वो दुर्योधन का परम मित्र था और उसने महाभारत के युद्ध में अपने भाइयों के खिलाफ हथियार उठाये, इसलिए अन्यायी भी. कर्ण के चरित्र में बेहद घुमाव हैं. होने भी चाहिए. आखिर अपनी जड़ों से उखाड़े गए इन्सान का सरल होना जमता भी नहीं. एक नाटक के दौरान कृष्ण का किरदार निभाते हुए मराठी लेखक शिवाजी सावंत भी कर्ण के प्रति आकर्षित हुए. उन्होंने कर्ण पर किताब लिखने की ठानी. मेरे शहर से ही उन्हें कर्ण के बारे में अहम् बातें पता चली. इन बातों को जब उन्होंने शब्दों में ढाला तो मृतुन्जय तैयार हुआ. साठ के दशक में लिख गए इस उपन्यास का प्रभाव आज भी होता है. मेरा यकीन कीजिये. मुझे कर्ण की कहानी पढ़ते समय कई बार रोना आया, कई बार हैरानी हुई, कई बार रोमांच हुआ. मन में हमेशा एक दुविधा का सामना करने वाले कर्ण के मन की थाह पाना आसन नहीं. सूर्यपुत्र कर्ण, सूतपुत्र कर्ण, ज्येषठ कौन्तेय कर्ण, राधेय कर्ण, दानवीर कर्ण, उसने अपने हर नाम को जिया. हर नाम को सार्थक किया. गंगा में खड़े होकर सूर्य किरणों से अपने शरीर को तपाना, कुंती के कहने पर चार पांडवों को जीवनदान देना. एक बार मित्र कह देने पर दुर्योधन की हर सही गलत बात का समर्थन करना. विरोधी होते हुए भी कृष्ण के आदेश का पालन करना. इस किताब को पढने के लिए आपमें कर्ण को जानने का उतना ही अहसास होना चाहिए, जितना लेखक को रहा होगा. कर्ण का किरदार आपको अन्दर तक झकझोर देता है. आप उसकी भावनाओं को समझने लगते हैं तो आपको लगता है की जो कर्ण ने किया वो सही था. चाहे वो द्रौपदी के चीरहरण के समय उस पर कटाक्ष करना हो या अपने पहले बेटे से माँ पुकारने का अनुरोध करती कुंती पर व्यंग्य करना. कर्ण की हर बात आपको सही लगती हो. जब इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए कर्ण से कवच कुंडल मांग ले जाते हैं, तो सब कुछ जानते हुए भी उन्हें दान देने की बात आपको अन्दर तक झकझोर देती है. कर्ण बिना शक अर्जुन से श्रेष्ठ तीरंदाज थे, लेकिन हमेशा उन्हें दोयम दर्जा मिला. उनका हमेशा लोगो ने अपने फायदे के लिए उपयोग किया. चाहे दुर्योधन हों या कृष्ण. कर्ण योद्धा थे, राजनीतिज्ञ नहीं. इसीलिए दुर्योधन ने उन्हें अपनी बातों में उलझाये रखा. कर्ण ने बेटे, भाई, पति, पिता, दोस्त और योद्धा हर भूमिका  को जिया और उसके साठ न्याय किया, चाहे इस कारण उन्हें खुद समय समय पर अन्याय का सामना करना पड़ा.

3 comments:

  1. बधाई, ब्लॉग में मज़ा आ गया. कर्ण को लेकर कुछ पंक्तिया तो बेहतरीन है. किसी किताब को पढकर उसकी समीक्षा अपने तरीके लिखना शायद नई विधा हो सकती है. इससे राइटिंग और निखरेगी.
    बेहतर होगा कि आप हर सप्ताह एक न एक फिल्म की समीक्षा जरूर लिखे. इससे आपका पुराना शौक भी पूरा होगा.

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  2. karn and eklayva are the real heroes of mahabharat ,its true all things can be correlated to mahabharat and ramayan,thats why older people adviced to read ramayana and geeta

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  3. writing style bahut achi he. perhney k bad lag rah he ki karn k barey ar bi janna chayie. aap ishey countinue rakhey. next time karn k barey m kuch naya janney ka moka milega. all da best...

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