Thursday, April 9, 2015

हमारे पास choice है क्या...

महिला सशक्तिकरण, ये शब्द सुनकर मुझे कई बार हंसी आती है। महिला के साथ सशक्तिकरण शब्द लगाने की जरूरत क्यों पड़ी, भला कोई मुझे बताएगा। महिला तो सशक्त ही होती है। मां सीता, द्रोपदी के समय से। हम सशक्त थी, ‌हैं और रहेंगी। My Choice नाम के एक वीडियो में दीपिका पादुकोण महिलाओं की आजादी की बात करती दिख रही हैं वहीं सोनाक्षी सिन्हा का कहना है कि सशक्तिकरण केवल employment और education से हो सकता है। क्या बकवास है यार।
न तो मर्जी से सेक्स करने से सशक्तिकरण होता है और न ही सिर्फ नौकरी कर लेने से। ऐसी बहुत सी highly Qualified औरतों को जानती हूं जो शिक्षा के बावजूद खुद को सशक्त नहीं बना सकीं। आप कुछ भी कर लें, आप तब तक सशक्त नहीं हो सकतीं जब तक आप अपने मन को सशक्त न कर लें। मन की मर्जी से कुछ भी कर लें, जैसे ही society और family का ख्याल आते ही आपके पैर कांपने लगे, मान लीजिए आप कमजोर हैं। सशक्तिकरण से मतलब क्या, आप अपने मन की करने को आजाद हैं। ऐसा है??? नहीं, ऐसा नहीं है। जब तक सोच पर पड़े ताले नही खुलेंगे, महिलाएं उस तरह से खुलकर नहीं जी सकती जैसे पुरुष जीते हैं। हां, पुरुष हमसे ज्यादा आजाद हैं, ज्यादा खुश हैं। क्योंकि वे मनमर्जियां करते हैं। उन्हें कोई नहीं रोकता। कभी मां रोक भी दे तो चाचा, दादा, ताऊ और पिता पौरुष के बचाव में आ खड़े होते हैं। लड़कियों के साथ ऐसा होता है???
दीपिका की मानें तो हम अपनी मर्जी के कपड़े पहनकर सशक्त हो जाएंगी। सोनाक्षी की मानें तो पढ़ने से empowerment आएगा। क्या करें हम? सब लड़कियां पीएचडी कर लें या फिर 18 साल की होते ही sex कर लिया जाए , फिर कोई हमें नहीं सताएगा। ऐसा होगा??? नहीं, कभी नही। सोच बदलनी पड़ेगी। सोच हमारी नहीं, इस समाज की बदलनी पड़ेगी जो छोटे कपड़े पहनकर घूमने वाली लड़कियों को बदचलन समझता है। सोच मां-बाप की बदलनी होगी जो अपनी बेटियों के सिर पर पूरे खानदान की इज्जत को ढोने का बोझ डाल देते हैं। सोच पतियों को बदलनी होगी जो बीवी को soulmate समझना तो दूर, soul तक नहीं समझते। और ऐसा न हुआ तो हम कितने भी वीडियो क्यों न बना लें, सशक्त नहीं हो पाएंगी।






(कई बार ख्याल आता है कि राम ने माता सीता को सिर्फ इसलिए त्याग दिया था क्योंकि रावण उन्हें उठाकर ले गया था। रावण ने तो कुछ अनैतिक नहीं किया, लेकिन राम ने एक धोबी के कहने पर पत्नी को त्याग दिया। तो फिर राम मर्यादा पुरुषोत्तम कैसे हुए? राम ने भी तो शबरी के झूठे बेर खाए थे, तो माता सीता ने उनका त्याग नहीं किया तो असल में सशक्त कौन था??? राम या सीता )

Saturday, April 4, 2015

हर नजर में कैमरा

Restructuring-UGC-among-top-100-priorities-of-Smriti-Iraniकई बार मोबाइल पर मैसेज आते हैं कि चेजिंग रूम में कैमरे को कैसे पकड़ें। मैसेज पढ़ते हैं, भूल जाते हैं। फिर कोई मामला सामने आता है तो हम चौकन्ने हो जाते हैं। लेकिन केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने उन चेतावनियों को याद रखा और एक बड़े मामले का भंडाफोड़ कर दिया। Good job Madam Minister!!!
मुझे पूरी उम्मीद है कि इस मामले के साथ ही महिला सशक्तिकरण जैसे शब्दों पर जोर-शोर से बहस होने लगेगी। घरों में माएं अपनी बेटियों को सलाह देंगी। वाट्सऐप पर सेफ्टी मैसेज की बाढ़ आ जाएगी। फिर!!! फिर कुछ नहीं। इस मामले के आरोपियों का भी कुछ नहीं होगा। दो, पांच या दस साल बाद शायद कोई फैसला आ जाए (वो भी इसलिए क्योंकि मामला स्मृति ईरानी से जुड़ा है)। फिर लोग भूल जाएंगे, लड़कियां भूल जाएंगी। यूं ही नए कपड़े ट्राय करने के लिए ट्राय रूम में जाती रहेंगी। लड़कियां बेवकूफ होती हैं न इसलिए या फिर उन्हें मालूम है कि इन कैमरों से क्या डरना। यहां तो हर नजर में कैमरा है। सड़क पर चलते, काम करते, रेस्टोरेंट में खाना खाते, फिल्म देखते, हर वक्त कोई न कोई कैमरा उनकी फोटो उतार ही रहा होता है। क्‍या करें? कहां जाएं? इनकी तो कहीं शिकायत भी नहीं होती। ये तो हर वक्त का शोषण है। खुद को हर वक्त एक आवरण में लपेटे रखना पड़ता है। गरमी हो सर्दी हो, सांस नहीं आती पर इसकी शिकायत नहीं कर सकतीं।


(एक बात का और शुक्र है कि इस बार चेहरे को सपाट बनाने की कोशिश करतीं हुईं महिला आयोग वाली कोई चलताऊ बयान नहीं दे पाएंगी क्योंकि मामला ‌मिनिस्टर का है)

Sunday, March 29, 2015

THE TRUTH ABOUT THE HARRY QUEBERT AFFAIR 


इस बुक के बारे में सबसे पहले HT BRUNCH में पढ़ा थ्‍ाा। बुक के reviews पढ़ कर लगा कि इसे पढ़ना होगा। शिवाजी सांवत की मृत्युंजय के बाद इस किताब के बारे में ही मैंने इतना excited feel किया। पहली फुरसत में इसे नेट पर खोजना शुरू किया। Flipkart पर मिली (इंटरनेट ने लाइफ को सचमुच आसान बना दिया है, मृत्युंजय को दो साल बाद दिल्ली के कनाट प्लेस की एक भुलभुलैया जैसी बुकशॉप में ढूंढ पाई थी) रेट ज्यादा था। थोड़ा हिचकिचाहट थी मन में। फिर सोचा बाकी जगह try करती हूं। amazon पर मिली, वहां भी महंगी थी। I mean, month end में आपको बजट थोड़ा देखकर चलना पड़ता है (गृहस्‍थी के साइड इफेक्ट)। करीब तीन महीने बाद बुक के रेट में कमी आई तो मैंने इसे खरीदा। इस किताब ने सचमुच दिमाग को हिला दिया


BOOK REVIEW

मर्डर मिस्ट्री है और एक बेहतरीन किताब, unexpected twist and turns... आप बेचैन रहते हैं जब तक बुक को खत्म नहीं कर लेते। Harry और nola का प्यार, हैरी और मार्कस की दोस्ती, New Hampshire का छोटा सा Somerset, साल 1975 और अगस्त की 30 तारीख
हालांकि बुक कुछ लंबी है लेकिन आप हर कैरेक्टर से रिलेट कर पाते हैं। चा‌हे वो मार्कस की मां हो या सोमरसेट का लाइब्रेरियन ई. पिंकास, हर किरदार के बारे में इतना detail कि आप अपनी आंखों में उसकी छवि बना सकते हैं। एक impossible सी लव स्टोरी, 15 साल की नोला और 33 साल के हैरी के बीच। एक अजीब सी दोस्ती 28 साल के मार्कस और 67 साल के हैरी की। Book में पैसे और fame के पीछे दौड़ता एक publisher है तो प्यार के लिए FBI की जाब छोड़ने वाला एक पुलिस अफसर भी है। हर किरदार एक राज है। वो एक बार खुलता है तो आप उसे अच्छा या बुरा मान लेते हैं। लेकिन कुछ ही पन्ने पलटने के बाद आपको उस किरदार के बारे में कुछ ऐसा पता चलता है कि आपकी राय बदल जाती है। किताब का हर पन्ना एक राज खोलता है। आप चैन नहीं ले पाते जब तक किताब को पूरा नहीं कर लेते।
एक और खासियत है इस किताब की। इसके chapter उल्टी गिनती में हैं। हर chapter की starting राइटर्स के लिए एक मैसेज है। लेखक बनने की चाह रखने वालों को ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए। हालांकि मर्डर का राज बुक के अंत में ही खुलता है लेकिन उससे पहले जो चौंकाने वाली बातें सामने आती हैं, उससे बुक को पकड़े आपकी उंगलियों में और ज्यादा तनाव आ जाता है। आप बुक छोड़ना भी चाहें तो नहीं छोड़ पाते। dates के बीच में घूमती कहानी कुछ खीज पैदा कर सकती है लेकिन कुछ ही देर में आप फिर से mysteries की दुनिया में डूबने लगते हैं। किताब आपको डराती है, हंसाती भी ‌है और प्यार कितना खूबसुरत अहसास है, ये भी बताती है।


(My Opinion : GO FOR IT)

Saturday, December 7, 2013

डरपोक कमबख्त मर्द

'अब तो लड़कियों से बात करने में भी डर लगने लगा है'
क्यों? क्योंकि वो आपकी घटिया हरकतों, टुच्ची बातों को नजरअंदाज नहीं करती। चीख-चीख कर दुनिया को बता देती है और फिर आपको उन हरकतों को जस्टिफाई करना मुश्किल हो जाता है?
खुद को क्यों नहीं बदल लेते?
कैमरे पर बात आई तो सॉरी भी उसके पीछे-पीछे आ गई,  लेकिन उन बातों का क्या जो रोज गली और नुक्कड़ पर होती हैं (वैसे तो इनसे घर भी अछूते नहीं हैं)। कैमरे के सामने अचानक प्रतिक्रिया नहीं दी जाती। हर पल मन में ऐसी बातें उठती हैं तभी जबान पर आती हैं। घर में ऐसी बातों से ही बीवी, बेटियों को काबू कर रखा है। बात-बात में दूसरों की मां-बहन को गाली देने से आप खुद को चाहे मर्द साबित करते फिरें लेकिन आपके घर की औरतों को मालूम हो जाता है कि आप किस गंदगी में हैं। उनकी मुश्किल ये है कि वे इस बारे में कुछ नहीं कर सकती। छोटा लड़का हो तो मां या बड़ी बहन एक दो बार डांट देंगी लेकिन फिर घर के बाकी पुरुषों के मुहं से धाराप्रवाह गालियां उस डांट को बहा ले जाती हैं। जो बचपन से रवैया बना वो मरते दम तक नहीं जाता। आप चाहे जितना ढोंग कर लें, कही न कहीं आपकी असलियत सामने आ ही जाती है। घर की औरतें इसे ढका-छुपाकर रखती है लेकिन बाहर नहीं चलता। (कम से कम अब नहीं चलता)। अब लड़कियां नहीं डरती आपसे। अब डर आपको लगना चाहिए। ये मत सोचिए कि आपने कुछ बेहूदा हर‌कत की तो कोई अपनी नौकरी, अपनी इज्जत की परवाह कर चुप बैठ जाएगी। आपकी बैंड से बैंड बजा देगी। तो औरतों को सलाह देने से पहले खुद को बदल लो वरना ऐसे ही तुम्हारे चेहरे से नकाब उतरेंगे। जबान की चाबुक पर लगाम लगाएं और अपनी इज्जत बचाएं।

Tuesday, November 26, 2013

तुम ही कसूरवार हो बेटी

'कोई पिता अपनी बेटी को ऐसी हालत में देखेगा तो आपा खो ही देगा।'

एक घर, चार लोग, दो की हत्या, दो को उम्रकैद
क्यों मारा गया दो लोगों को? किसी के पास कोई पुख्ता जवाब नहीं कि आखिर उस रात को उस कमरे में हुआ क्या था?
दो लोग मर गये तो बाकि बचे दो को सजा। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर। ठीक बात है। आपके बगल वाले कमरे में हत्या हो जाती है और आपको पता नहीं चलता? कैसे मुमकिन है? फिर कई सबूत आपकी ही तरफ इशारा कर रहे है।
आपने भी अपने बचाव में बड़ी हल्की दलीलें दी (तभी आपको सजा मिली). लेकिन इस मामले की एक थ्योरी गले नहीं उतर रही। (केस के अनुसार आपने अपनी बेटी को नौकर के साथ गलत हालत में देखा तो आपका खून खौल गया और आपने दोनों की हत्या कर दी. लेकिन आपका खून हत्या करते ही शांत हो गया और आपने सारे सबूत मिटाने की कोशिश शुरू कर दी। मिटा भी दिए। नौकर का मोबाइल आज तक नहीं मिला। लड़की का जब मिला पूरा साफ़ किया जा चूका था। वो सर्जिकल ब्लेड नहीं मिला जिससे दोनों के गले काटे गये। वो गोल्फ स्टिक नहीं मिली जिससे सर पर वार किया गया था। लड़की का कमरा क्लीन था, कोई निशान नहीं, चादर पर सिलवटें नहीं थी, प्राइवेट पार्ट्स साफ़ किये गये थे।)
यहीं सारा मामला मेरी नजर में अटकने लगता है। क्या दो हत्याओं का केवल यही कारण हो सकता था?
हो सकता है बेटी को पिता की किसी बात का पता चल गया हो और नौकर ने उसे बेटी की जान लेते देख लिया हो
हो सकता है पिता ने बेटी के साथ कुछ गलत करने की कोशिश की हो और नौकर ने देख लिया हो?
हो सकता है किसी बहस के दौरान गलती से बेटी की हत्या हो गई हो और नौकर ने देख लिया हो? बाद में बेटी के प्राइवेट पार्ट्स को साफ़ कर मामले को भटकाने कि कोशिश की गई हो?
जो लोग अपनी इकलौती बेटी की हत्या के बाद इतने शांत रह सकते हैं, वो कुछ भी कर सकते हैं। इस केस में सबसे हल्की दलील यही थी कि पिता ने बेटी को नौकर के साथ ऐसी हालत में देखा कि आपा खो दिया और दोनों को मार दिया (कई छोटी मानसिकता के लोग सोशल साइट्स पर इसका समर्थन भी कर रहे हैं). कोर्ट ने जो भी फैसला दिया हो,  इन लोगों के लिए मरने वाले ही दोषी थे। सही है, अब कुछ भी कहिये, मरने वाले अपने बचाव में कोई दलील पेश नहीं कर सकते।
अब बस एक उम्मीद है कि एक दिन ये दोनों दोषी अपने दिल कि आवाज सुनें और सच्चाई को दुनिया के सामने रखें। तब तक तो बेटी तुम ही कसूरवार हो 

Tuesday, September 24, 2013

जो करें लड़कियां करें

रोहतक में धर्मेन्द्र और निधि की हत्या कर दी गई। उनका कसूर उन्होंने प्यार किया। कैसे कर सकते थे? समाज प्यार व्यार टाइप बातों को नहीं मानता। दोनों के गले निधि के परिजनों ने काटे। खापों का बयान आया परिवार का निजी फैसला था। हो सकता है हो। लेकिन उनको ऐसा करने के लिए मजबूर किसने किया? कौन कहता है की प्यार किया तो बिरादरी से बाहर कर दिया जायेगा, हुक्का पानी बंद कर देंगे?
फिर आया खापों का एक फैसला। लड़कियों के जीन्स-टॉप पहनने पर रोक। क्यों? क्योंकि इससे माहौल खराब होता है। कैसे? किसी लड़के की नजर और नीयत गन्दी है तो उसमें किसी लड़की का और उसके कपड़ों का क्या कसूर है। लड़कों को बुरका क्यों नहीं पहना देते। मुजफ्फरनगर में दंगा भड़का। मीडिया में आया लड़की को छेड़ने पर बात बिगड़ी। लड़की डर गई, बोली अब स्कूल नहीं जाउंगी। मेरी वजह से भाई चला गया, अब मैं नहीं पढूंगी। मुझे पता नहीं लेकिन लगता है शायद उसके माता-पिता ने भी उसका समर्थन ही किया होगा। ऐसा कब तक चलेगा और क्यों?
हर गलती का ठीकरा लड़कियों के सिर क्यों? पिता, भाई, पति, बेटे की गलती की सजा उन्हें क्यों?
कई घरों में मंगलवार और वीरवार को लड़की को बाल नहीं धोने दिए जाते। कई घरों में तो शनिवार को भी मनाही होती है। माँ भी मना करती थी। ऐसा क्यों? छोटी थी तो माँ की बात मान लेती थी। समझदार हुई तो सवाल उठाये। माँ से जवाब नहीं मिला तो सहेलियों से पूछा। पता चला उनके घरों में भी ऐसा ही है। फिर एक फ्रेंड ने बताया कि उसकी मम्मी ने बताया है कि जिसका एक भाई होता है उसे इन मंगल, वीर को बाल नहीं धोने चाहिए। बताने की जरुरत नहीं अगर ऐसा किया तो भाई को कुछ अनिष्ट हो सकता है। फनी है न, लेकिन सच।
बचपन से ही लड़कियों को समझा दिया जाता है की बाप-भाई की इज्जत उनके हाथ में है। उन्होंने कुछ गलत किया तो समझो सत्यानाश। लेकिन लड़कों को ऐसी कोई सीख नहीं दी जाती। उनको सब माफ़। वो आखिर अपने जो हैं

Saturday, August 28, 2010

कर्ण कथा

ऐसा कहा जाता है कि जो महाभारत में नहीं है, वो दुनिया में नहीं हो सकता. मतलब दुनिया कि हर बुराई, हर अच्छाई, हर तरह की इंसानी फितरत महाभारत में है. मुझे भी ऐसा ही लगता है. मैं महाभारत की कथा से बहुत प्रभावित रही हूँ. बचपन में टीवी पर देख कर उसके सभी पात्रों से परिचय हुआ. लेकिन द्रौपदी और कर्ण, इनके किरदारों ने मुझे हमेशा आकर्षित किया. कैसे एक महिला पांच पतियों के साथ रह सकती है. कैसा लगता होगा उस इन्सान को, जिसे ये पता चले की उसकी माँ ने उसे जन्म लेते ही नदी के हवाले कर दिया.

दुनिया महाभारत को सिर्फ कृष्ण, अर्जुन, गीता उपदेश और युद्ध के लिए जानती है. मैं गीता की नगरी कुरुक्षेत्र  की रहने वाली हूँ. इसलिए मैंने भी बचपन से न्यायी पांडवों और अन्यायी कौरवों के बारे में सुना था. लेकिन कर्ण महाभारत का वो हिस्सा है, जिसके बिना पांडव भी अधूरे हैं और कौरव भी. वो पहला पांडव था इसलिए नियम अनुसार न्यायी था. वो दुर्योधन का परम मित्र था और उसने महाभारत के युद्ध में अपने भाइयों के खिलाफ हथियार उठाये, इसलिए अन्यायी भी. कर्ण के चरित्र में बेहद घुमाव हैं. होने भी चाहिए. आखिर अपनी जड़ों से उखाड़े गए इन्सान का सरल होना जमता भी नहीं. एक नाटक के दौरान कृष्ण का किरदार निभाते हुए मराठी लेखक शिवाजी सावंत भी कर्ण के प्रति आकर्षित हुए. उन्होंने कर्ण पर किताब लिखने की ठानी. मेरे शहर से ही उन्हें कर्ण के बारे में अहम् बातें पता चली. इन बातों को जब उन्होंने शब्दों में ढाला तो मृतुन्जय तैयार हुआ. साठ के दशक में लिख गए इस उपन्यास का प्रभाव आज भी होता है. मेरा यकीन कीजिये. मुझे कर्ण की कहानी पढ़ते समय कई बार रोना आया, कई बार हैरानी हुई, कई बार रोमांच हुआ. मन में हमेशा एक दुविधा का सामना करने वाले कर्ण के मन की थाह पाना आसन नहीं. सूर्यपुत्र कर्ण, सूतपुत्र कर्ण, ज्येषठ कौन्तेय कर्ण, राधेय कर्ण, दानवीर कर्ण, उसने अपने हर नाम को जिया. हर नाम को सार्थक किया. गंगा में खड़े होकर सूर्य किरणों से अपने शरीर को तपाना, कुंती के कहने पर चार पांडवों को जीवनदान देना. एक बार मित्र कह देने पर दुर्योधन की हर सही गलत बात का समर्थन करना. विरोधी होते हुए भी कृष्ण के आदेश का पालन करना. इस किताब को पढने के लिए आपमें कर्ण को जानने का उतना ही अहसास होना चाहिए, जितना लेखक को रहा होगा. कर्ण का किरदार आपको अन्दर तक झकझोर देता है. आप उसकी भावनाओं को समझने लगते हैं तो आपको लगता है की जो कर्ण ने किया वो सही था. चाहे वो द्रौपदी के चीरहरण के समय उस पर कटाक्ष करना हो या अपने पहले बेटे से माँ पुकारने का अनुरोध करती कुंती पर व्यंग्य करना. कर्ण की हर बात आपको सही लगती हो. जब इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए कर्ण से कवच कुंडल मांग ले जाते हैं, तो सब कुछ जानते हुए भी उन्हें दान देने की बात आपको अन्दर तक झकझोर देती है. कर्ण बिना शक अर्जुन से श्रेष्ठ तीरंदाज थे, लेकिन हमेशा उन्हें दोयम दर्जा मिला. उनका हमेशा लोगो ने अपने फायदे के लिए उपयोग किया. चाहे दुर्योधन हों या कृष्ण. कर्ण योद्धा थे, राजनीतिज्ञ नहीं. इसीलिए दुर्योधन ने उन्हें अपनी बातों में उलझाये रखा. कर्ण ने बेटे, भाई, पति, पिता, दोस्त और योद्धा हर भूमिका  को जिया और उसके साठ न्याय किया, चाहे इस कारण उन्हें खुद समय समय पर अन्याय का सामना करना पड़ा.