Thursday, October 8, 2009

फालतू चिलपों न मचाएं

नवभारत टाईम्स में पब्लिश ये अर्तिक्ले मुझे बेहतरीन लगा... आखिर एक अप्रवासी भारतीय की किसी भी सफलता पर इतराने का क्या मतलब है.... ऐसे लोग अवार्ड लेते समय भारत का नाम तक नहीं लेते... और हम यहाँ उनके नाम का डंका पिटते हैं... इंडिया में पैदा होने का मतलब नहीं की उसकी सभी उपलब्धियां भी हमारी बपोती हो गई... उफ़, ये मानसिकता हमे कहीं का नहीं रखेगी....
हर अखबार ने इन्हें फ्रंट पेज पर ऐसे चिपका दिया मानो ये भारत के लिए भारत से भी बड़ी हस्ती हैं.... हटाओ यार... सच्ची प्रतिभायों पर ध्यान दीजिये.... जैसे झारखण्ड खुफिया पुलिस विभाग के इंसपेक्टर फ्रांसिस इन्द्रवार.... ये हैं भारत के सच्चे सपूत
डॉ. वेंकटरमण रामकृष्णन।
वेंकटरमण को इस साल नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। यह खबर सभी अखबारों , टीवी न्यूज चैनलों की हेडलाइन बनी। हर चेहरा खुश नजर आया। ऐसा माहौल बना कि जैसे नोबेल इंडिया की झोली में आ गिरा हो। लेकिन इसमें खुश होने जैसी कोई बात नहीं है। पहले तथ्यों पर नजर डालते हैं ...

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। 1930 में सर सी . वी . रमन को भौतिकी के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया। अल्बानिया में जन्मी मदर टेरेसा ने 1950 में कोलकाता में गरीबों और रोगियों की सेवा के लिए मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की। उन्हें भारत की नागरिकता भी दे दी गई थी। 1979 में उन्हें नोबेल कमिटी ने शांति पुरस्कार के लिए चुना। मदर टेरेसा को भी इस सूची में गिना जा सकता हैं क्योंकि उन्हें भी नोबेल भारत में रहकर यहां के लोगों के बीच काम करने के लिए मिला।
1998 में अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले अमर्त्य सेन शांतिनिकेतन और कोलकाता के प्रेजिडेंसी कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद ब्रिटेन चले गए। यहां ट्रिनिटी कॉलेज से उन्होंने आगे की पढ़ाई की और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री बने। सेन अब भी भारतीय नागरिक हैं। सही मायने में सिर्फ यही चार नोबेल पुरस्कार भारत के हैं। बाकी के नोबेल विजेताओं का भारत से कहीं न कहीं जुड़ाव था लेकिन उनके नोबेल को हम न तो अपना कह सकते हैं और न ही उनपर गर्व कर सकते हैं। हरगोबिंद खुराना को 1968 में मेडिसिन का नोबेल मिला। 1922 में अविभाजित भारत के रायपुर ( अब पाकिस्तान में ) में जन्मे खुराना ने एमएससी की पढ़ाई लाहौर यूनिवर्सिटी से की और इसके बाद 1945 में वह ब्रिटेन चले गए। उनके नोबेल का भारत से कोई लेना - देना नहीं था। 1910 में लाहौर में जन्मे एस . चंद्रशेखर , नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी . वी . रमन के भतीजे थे। शुरुआती पढ़ाई मद्रास ( अब चेन्नै ) में करने के बाद वह अमेरिका चले गए। 1953 में उन्हें अमेरिकी नागरिकता मिल गई थी। 1983 में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। त्रिनिदाद में जन्मे भारतीय मूल के लेखक वी . एस . नायपॉल को 2001 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। दो साल पहले 2007 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अल गोर और यूएन पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज को संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार दिया है। इस पैनल के मुखिया भारत के प्रसिद्ध पर्यावरण विशेषज्ञ आर . के . पचौरी थे।
इस आर्टिकल का मकसद किसी की उपलब्धि को कम करके आंकना नहीं है बल्कि यह बताना कि जिन नोबेल पुरस्कारों को हम अपना मानते हैं वह दरअसल हमारे नहीं हैं। वैसे तो नोबेल पुरस्कार पूरी मानवता का कल्याण करने या उसे प्रभावित करने के लिए दिए जाते हैं और किसी एक देश से इसे जोड़ना पक्षपातपूर्ण होगा। लेकिन यह भी सच है कि एक अरब से ज्यादा लोगों के देश में कुल चार नोबेल पुरस्कार ऐसे हैं जिनकी नींव भारत में ही पड़ी। मूल बात यह है कि क्या भारत में लोगों को वैसी बुनियादी सुविधाएं मिलती हैं कि वह हर नोबेल पुरस्कारों में अपना नाम दर्ज करवा सकें। क्यों वैज्ञानिकों को उच्च स्तर की रिसर्च के लिए पश्चिम का रुख करना पड़ा है ? आईआईटी , आईआईएम और आईआईएसएसी के अलावा हमारे पास कितने विश्वस्तरीय संस्थान हैं ? सरकार आधारभूत शोध और विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए कितना खर्च करती है ? यह उसी तरह है जैसे ओलिंपिक में अभिनव बिंद्रा के गोल्ड मेडल पर पूरा भारत झूम उठा। जबकि उनकी इस सफलता में भारतीय खेल तंत्र की भूमिका न के बराबर ही रही। अभिनव बिंद्रा ने यह महंगा खेल अपने खर्च पर सीखा जबकि दूसरे खिलाड़ी , जो इसके लिए सरकारी संस्थाओं पर निर्भर हैं , ओलिंपिक में बड़ी कामयाबी से अछूते ही रहे।

1 comment:

  1. satya vachan.America, britain mein khaas taur se bhartiye apni yogyataaon se inhein samridhh bana rahe hain.saamrik, aarthik aur takniki kshetra mein zyada yogdaan hai bhartiyon ka.Par doshi kaun?Kya hamare sarkaar ki nitiyaan doshi nahi hai? Brain drain rokne ke kitne prayaas huye?My dear practically socho...maan lo main gareeb hoon...badi mushqil se padhai poori ki.Par apne yahaan research nahi kar sakta...mauka hi nahi milta.DRDO,BARC jaise research centre ki haalat shayad tumhein nahi pata.Mere kayee friends vidwesh ka dansh jhel rahe hain.BARC mein mere ek friend k thysis nasht kar diye gaye...kyonki usne 2 saal mein hi apne project head ho peechhe chhod diya.Ab wo vikshipt hai.Mathematician Vashishth Narayan Singh ka naam suna hoga.Unka to poora research work hi ek sajjan ne apne naam se publish kara liya.Aj wo vikshipt hain...unka treatment kiya jata to ve theek ho sakte the.Lekin kya sarkar ne sudh li.Mere kareebi mitr hain Anand Kumar...94 mein unhe research ke liye america jana tha...2 lacs nahi de paayee sarkar.Aj dekho uske coaching se poora batch hi IIT mein chala jata hai.Abhi microbilogy mein research karne waali meri ek parichit ki jaleel kiya gaya DRDO mein...kya in vyawastha mein koi kaam kar sakta hai.ye to namuna hai ...sachchai aur bhi hai...

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